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झूठ की बहती नदी में / रेनू द्विवेदी
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झूठ की बहती नदी में,
मन कमल मेरा खिला!
सत्य से अनिभिज्ञ थी तो,
क्यों करूं प्रभु से गिला!
प्राण मेरा कैद जैसे,
देह रूपी जेल में!
चोरनी शायद बनी हूँ,
जिंदगी के खेल में!
हर तरफ मुझको प्रफुल्लित,
स्वार्थ का पौधा मिला!
सत्य से---
युद्ध अंतस में छिड़ा है,
साँस की ज्यों प्राण से!
भाग्य से मैं नित्य लड़ती,
कर्म के निज बाण से!
दर्द में परिपक्व हो अब,
बन गयी हूँ मैं शिला!
सत्य से---
राह धुँधली कर गयी यह,
दर्द की ज्वाला मुखी!
सोचकर बातें यही सब,
मन बहुत होता दुखी!
अब नजर आता नहीं है,
स्वप्न का मेरे किला!
सत्य से---