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गर्म है सच की चिता / विनय कुमार

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गर्म है सच की चिता, कुछ सेंक कुर्सी के लिए।
देख कोई सेंकता है केक कुर्सी के लिए।

क्या करें जँचती नहीं हैं लकिड़याँ सुल्तान को
कट रहे हैं पेड़ लाखों एक कुर्सी के लिए।

यह विचारों का लबादा इस भरी बरसात में
फेंक सकता है अगर तो फेंक कुर्सी के लिए।

गीत गाने का समय है गा रहे हैं भेडिए
मुख्तलिफ़ हैं अंतरे पर टेक कुर्सी के लिए।

बह गए सब घर तुम्हारी नेकियों की बाढ़ में
हो गया है किस क़दर तू नेक कुर्सी के लिए।

एक कुर्सी के लिए गूँगा रहा बरसों मगर
चीख का री-टेक पर री-टेक कुर्सी के लिए।