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दिन-रात ढूँढता तुझको मन / राहुल शिवाय
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Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:58, 18 फ़रवरी 2020 का अवतरण
दिन-रात ढूँढता तुझको मन।
बीती जीवन की घटनाएँ
सुधियाँ बनकर मन पर छातीं,
मेरे मन को विह्वल करके
यह नयनों तक हैं आ जातीं।
तब दर्द, आह, तन्हाई में
छाने लगते नयनों पर घन।
जैसे तू मुझे बुलाती थी
स्वर वही गूँजते कानों में,
फिर से जग जाते हैं जैसे
नव प्राण हृदय-अरमानों में।
फिर मुझे जलाने लगता है
मेरे मन उपजा द्वन्द्व-दहन।
जब बार - बार चिल्लाता हूँ
तब कंठ करुण स्वर गाता है,
मेरे पीड़ामय शब्दों से
कागज़ सारा रँग जाता है।
ये कविताएँ ही करती हैं
जीवन का कम एकाकीपन।