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चौसर पर मैं हार गया / राहुल शिवाय
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:43, 18 फ़रवरी 2020 का अवतरण
मैं नियति से मिलने वाली
हार आज स्वीकार गया,
इस जग के कपटी पासों से
चौसर पर मैं हार गया।
तू बरसाने की गोरी थी
मधुवन का मधुसूदन मैं था,
तू सूरज की प्रथम किरण थी
फूल भरा इक उपवन मैं था।
जग ने आज उजाड़ा मुझको
प्राण! प्रेम बेकार गया।
प्रेम-वृक्ष जिसकी छाया में
हम-तुम बात किया करते थे,
इक-दूजे पर प्रेम-सुधा रस
की बरसात किया करते थे।
आज वहाँ आँसू ही आँसू
हार मिलन शृंगार गया।
तरह-तरह के पुष्प खिलाए
हमने प्रेम भरे आँगन में,
प्रणय-पंथ की ओर बढ़े हम
साथ-साथ अपने जीवन में।
सार भरा प्रेमिल सपना वह
प्राण! आज निस्सार गया।