भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी भी कोई आशियाना कहाँ था / गोविन्द राकेश

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:47, 21 फ़रवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोविन्द राकेश |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी भी कोई आशियाना कहाँ था
किसी से मेरा दोस्ताना कहाँ था

पी ली थी मैंने मगर होश में था
नशे में हूँ मैं जताना कहाँ था

चले भी तो तीर उसकी तरफ़ से
सधा पर उसका निशाना कहाँ था

झुकाई उसने न अपनी निगाहें
शराफ़त का अब ज़माना कहाँ था

इरादा था कह दूँ उसे बात अपनी
मगर ख़ूबसूरत बहाना कहाँ था