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प्रेम का बदलना / पूनम मनु

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प्रेम रत्नावली के हाथों से जब भी छूटता है
वह तुलसीदास का 'रामचरितमानस' बन जाता है।
सूर जब भी झुकते हैं प्रेम में दास्य भाव से
अपने कृष्ण के चरणों में
वह पदों के रूप में फूट पड़ता है
जयदेव गोविंद जब भी नवाते हैं शीश प्रेम के आगे
'राग गोविंद' रच जाता है
प्रेम जब भी विरह में भींगता है
शक्ति बन जाता है दशरथ मांझी की
चट्टान काटकर रास्ता बनता जाता है।
प्रेम घुँघरू बन जब भी बंधता है पग में
मीरा के नाम को पूजनीय कर जाता है
प्रेम में सब है सिवाय घृणा के
वह जब भी हांक लगाता है
बीबी फातिमा का वंशज अब्दुल्ला शाह
क़ाफ़ियाँ रचता हुआ बुल्लेशाह हो जाता है
प्रेम जब भी उतरता है कागज़ पर
वह मेहँदी-सा रचता हुआ
निराला का 'राम की शक्तिपूजा'
जयशंकर प्रसाद का 'कामायनी'
और जायसी का 'पद्मावत' बन जाता है
प्रेम,
प्रेम जब भी चाहता है ठहरना कहीं
वह मोह से दूर...
वैराग्य की कविता में बदल जाता है।