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कफ़स में कैद पंछी / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'
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कफ़स में कैद।
मेरे आंगन में,
कराहता रहा वह पंछी।
हाँ, करता भी क्या?
तोड़ डाले थे उसने पंख,
उड़ने की चाहत में।
सुन पाता हूँ साफ साफ,
उसके कलरव में उठते दर्द को।
अक्सर महसूस करता हूँ,
उसके चीत्कार को अपने भीतर।
एक पिंजरा है तुम्हारी यादों का।
एक पंछी कैद है यहाँ भी।
तोड़ लिए हैं पंख।
सुन सको जो चीख तो,
तोड़ देना सलाखों को।
मैंने भी उड़ा दिया आंगन से,
कैद पंछी को।