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वे जख्म थे। / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'

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वे जख्म थे।
हृदय की तलहटी से
मेरी पलकों तक आ पहुंचे,
लड़खड़ाते हुए जैसे तैसे।
डर था उन्हें अस्तित्व खोने का।
बेदम से देखते रहे मेरी आंखों में।
उन्हें ना समझ सका था मैं।
व्यस्त था गिनने में रेजकारी खुशियाँ।
यकीनन देखा होगा बेउम्मीदी से मुझे,
वरना इस तरह से ना छलकते पन्ने पर।
कि बिखर ही जाएँ सिमटने से पहले।
एक उम्मीद थी उन्हें सहारे की।
जबतक मैं उनकी उम्मीद को समझता,
सहारा देकर उठाता, आकार देता कोई,
वे स्वतः ही गढ़े जा चुके थे।
बेशब्द थे लेकिन पन्ने पर पढ़े जा चुके थे।
देख रहा हूँ,
हसरत है उनकी आंखों में फिर से।
शायद उठना चाहते हो।
मैंने भी हाथ बढ़ा दिया है,
थाम लेने को उनका हाथ।
अब नहीं उतरने दूंगा कभी उन्हें,
इस तरह पन्नों पर।
और भी मुश्किल है सह पाना उन्हें,
इस तरह पन्नों पर।