भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहो तो / वेणु गोपाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कहो तो

"इन्द्रधनुष"

ख़ून-पसीने को बिना पोंछे -



दायीं ओर भूख से मरते लोगों का

मटमैले आसमान-सा विराट चेहरा

बायीं ओर लड़ाई की ललछौंही लपेट में

दमकते दस-बीस साथी


उभर के आएगा ठीक तभी

सन्नाटे की सतह भेदकर

तुम्हारा उच्चारण


कहो तो

कैसे भी हो, कहो तो

"इन्द्रधनुष!"


इस तरह हम देखेंगे

तुम्हारी वाचिक हलचलों के आगे

सात रंगों को पराजित होते हुए


एक दुर्लभ मोन्ताज को मुकम्मिल करेगी

तूफ़ान की खण्डहर पीठ

जो दिखाई दे रही है

सुदूर

जाती हुई


कह सकोगे

ऐसे में

"इन्द्रधनुष"


अज्ञात संभावनाओं की गोद में

उत्सुक गुलाबी इन्तज़ार है

तुम्हारे मौन-भंग की

उम्मीद में ठहरा हुआ


अब तो

कह भी दो

कि दर्शकों की बेसब्री

बढ़ती जा रही है


वे उठ कर चले जाएँ

इस से पहले ही

कह डालो

"इन्द्रधनुष!"

- चाहे जैसे भी हो


बाद में

अगर हो भी जाओगे

गुमसुम

तो गूंजें-प्रतिगूंजें होंगीं

ज़र्रे-ज़र्रे को

इन्द्रधनुष की

उद्घोषणा बनाती हुई.