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दोहे-१ / मोहित नेगी मुंतज़िर

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नेता जी परदेश में , बीच किनारे सोय।
जनता अपने भाग्य पे,बैठी बैठी रोय।

शरद महीने में लगे, बड़ी सुहानी धूप ।
 दोपहरी में जेठ की , देखो असली रूप।

दुर्लभ जीवन है मिला , कर मत तू बर्बाद
ऐसा कुछ करके दिखा ,रक्खे दुनिया याद।

आंगन आंगन डोलती,चिड़िया ये अनजान
जात धरम का खेल तो, खेले बस इंसान।

हर दम करना चाहिये , आपको भ्रष्टाचार
अधिकारी हैं आप तो आपका है अधिकार ।

सड़क बनेगी गांव तक, ख़्वाब संजोये लोग
मगर बजट तो चढ़ गया , अभियंता को भोग ।

इस पर है फ़ाइल अभी , उस पर हैं अधिकार
पांच बरस कब के गए ,चली गई सरकार।
 
 गर्मी के आगोश में, सूख रहे हैं प्राण
आज बरस जा सांवरे, कहना मेरा मान।

अपने मतलब के लिये, नतमस्तक हैं लोग
उगते सूरज को सभी, लगा रहे हैं भोग।

बईमानी करते हुए, उम्र गई है बीत
हम को मत सिखलाइये,आप जगत की रीत।