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तुम भी मुझे नहीं बता पाई / रति सक्सेना

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जब तक रहीं तुम

मैं कभी जता नहीं पाई प्यार

बांधी रही छाती में

अनउलझी गाँठ

तुम्हारी ख़ूबसूरती, कर्मठता और बौद्धिकता

से आतंकित रही, पर शिकायत लिए

कि तुम्हारे पल्लू की ओढ़ में

मुझे कभी जगह नहीं मिली


एक अजीब-सा अंहकार पाल लिया था मैंने

तुम्हारे विरुद्ध, या फिर उन जुमलों के विरुद्ध

जो तुम्हे मिले थे, मेरी एवज


तुम्हारे जाने के बाद

एक खाली लिफ़ाफ़ा मिला

तुम्हारी गीता की गोद में

जिस पर मेरा नाम लिखा था


तभी जान पाई कि

कि काफ़ी कुछ था, जो तुम भी

मुझे नहीं बता पाईं