अंधा कुंवा / प्रवीन अग्रहरि
रात के अँधेरे में जब मैं सिर उठा कर ताकता हूँ आसमान
तो मैं ख़ुद को देखता हूँ एक अँधे कुंवे में गिरता हुआ
कुंवे की विलुप्त दीवारों में घुटती हुई गरम हवा
मुझे व्याकुल करती है...
कुंवे का सफ़ेद पानी काला हो चुका है
और वह टिमटिमाती चमकीली चवन्नियाँ भी कोई बिन ले गया
जो मैंने दादी से कहानी सुनते वक़्त
जेब से गिरा दी थीं।
अब वह स्याह पानी झझकता है
वहाँ प्रकाश की सारी संभावनाएँ मर चुकी हैं।
मैं गिरता जा रहा हूँ।
कुंवा और गहरा होता जा रहा है...
दीवारों में पनपे गुलमोहर और पीपल
अब सूखे शरपत बन चुके हैं।
मैं झट से सिर नीचे कर के अपने आप को बचा लेना चाहता हूँ
लेकिन मेरी नजर उस स्याह कुंवे की दीवार पर बैठे एक शख्श पर पड़ती है
वह मुझे बुलाता है, मुझे लुभाता है।
वह कहता है मेरी खूबसूरती देखो! मैं चाँद हूँ।
मैं उसकी एक नहीं सुनता
और सिर नीचे कर के बच जाता हूँ अँधेरा बनने से...
दरअसल वह चाँद नहीं था,
चाँद पहले हुआ करता था!
अब वह कुंवे की दीवार से चिपका हुआ
मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस है
जो और अकेला हो चुका है
जब से चवन्नियाँ गिरनी बंद हो गईं।