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ज़िन्दगी का सुकून / अंशु हर्ष
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मेरी सरल सहज-सी दिखने वाली
ज़िन्दगी का सच बताती हूँ
टूट कर बिखर कर
मैं भी हर दिन मिट्टी में मिल जाती हूँ
फिर उसी मिट्टी से एक दिया बना
एक ज्योत लगाती हूँ
मुझे नहीं ज़रूरत रोशनी की
मेरे अपनों की राह में रख आती हूँ
फिर उसी माटी का एक कुल्हड़ बना
मसाले की चाय बना उसमें पी जाती हूँ
हर कड़वाहट ज़िन्दगी की
हर घूट के साथ निगल जाती हूँ
वो जो साथ देता है हर कदम पर
उस अदृश्य शक्ति को
आत्मसात किये जाती हूँ
माँ का सुर्ख़ कोमल गुलाब थी
इसीलिए तो अब काँटों पर
मुस्काती हूँ
कभी कभी बहुत थक जाती हूँ
ज़िन्दगी से
मैं भी एक सूकून भरी नींद चाहती हूँ