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स्वस्ति, मेरी बेटी / मदन वात्स्यायन

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ऊनी रोएँदार लाल-पीले फूलों से
सर से पाँव तक ढका हुआ
मेरी पत्नी की गोद में
छोटा-सा एक गुलदस्ता है ।

फव्वारे की धाराओं में कमल के लाल फूलों को हिला-हिलाकर
बाग़ हंस रहा है,
जैसे कोई बे-दाँत का बच्चा अपने मखमली हाथ-पाँव
      फेंक-फेंककर आनन्द व्यक्त कर रहा हो — 

’अद्भुत्त एक अनुपम बाग़’

बड़े-दिनों में चित्त लेटी थी
होली में मेमने-सी ठनमनाती थी,
अब इस असाढ़ में तू खड़ी है —
बेटी, तू आदमी है या मालती की बेल है !

मैंने एक चंचल खरहा पकड़ा है ।
सोने की जूही की दो डालों के झूले में इसका घर है ।
दो पांवों से ठुमकता आता है, चार पांवों से भाग जाता है,
घर पर चढ़के हँसता है मुझे देखकर ।
कोई कहता है, योगिराज शिव को भी मुग्ध करने वाली
                     तपस्विनी-वेष में देवी पार्वती ही सर्व-सुन्दरी थीं,
कोई कहता है, साज-शृंगार सहित माँ जानकी ही सर्व-सुन्दरी
              थीं, जिनके रूप पर नारियाँ भी ईर्ष्या छोड़ मोह गईं,
तो यह जो माँ के हाथों से फिसलकर, साबुन में सनी नंगी
  मेरी ओर किलकती भागी आ रही है — 
क्या उससे भी सुन्दर ?

मेरी बेटी, तेरे दुश्मनों की क़सम
सप्तर्षि-जैसे तेरे सातों दातों का हंसना मधुर है ।
मुझे पर आज भी याद आता है
शुक्र तारे-सा तेरा वह एक दाँत !

कोई मोल लेगा रे, कोई मोल ?
मेरी सात दाँतों वाली बेटी को कोई मोल लेगा रे ?
इसके हीरे के हंसते चार दाँत नीचे हैं, ऊपर मोती के
                                                               मुस्कुराते तीन दाँत,
मेरी अनमिल को मोल लेगा रे, कोई मोल ?

हाथों से छूटकर क़लम मुझे मिल गया है,
नारद के पांव ठमक गए हैं, सकलंक चान्द-सी आँखें गोल हैं
चुनियाए जाकर ओठ गुलाब की हंसती हुई कोंढ़ी बन गए हैं — 
स्वस्ति फू-फू कहकर चाय माँग रही है ।

मेरे आँगन में धान का बिड़ार है सुकुमार ।
सुबह की पहली आद्या चम्मच चाय इसको चढ़ती है ।
पहली बूँट बराबर डबलरोटी इसका ग्रास है ।
मेरे आँगन में कलेजे का टुकड़ा है, सुकुमार ।

कलेण्डर दिसम्बर तक फटा है, ग्लास चमके हुए हैं, किताबों
                       के पन्ने फट-फटकर एक-दूसरे में मिल गए हैं,
कान टूटने से प्यालियाँ कटोरियाँ बनी हुई हैं,
        दीवारों पर लाल-काली मकड़ी-जालियाँ लिखी हैं,
         टेबल-लैम्प में न बल्ब है, न छतरी, मौसमी
         फुलवाड़ी में सिर्फ़ डण्ठल और डाल हैं;
शिशु हाथी की सूँड़-जैसे चंचल हाथों वाली मेरी लक्ष्मी
वहाँ एक महीने रहकर गई है ।

ओ नियति की ईर्ष्या-भरी आँखों,
मेरे आँगन में झाँकना बेकार है ।
एक पुराना टॆबल है, दो-चार कुरसियाँ हैं, चनकी प्यालियों
                               में चाय है, टूटी तश्तरियों में बिस्कुट,
और बतिया ककड़ी-सा दुबला-पतला, साँवला एक
                                                                 बेटी बच्चा है ।

पिछवाड़े घूरे पर पड़ा था
ठण्डे चूल्हे में पला है
ललाट पर, आँखों में, हाथों और पेट पर, कालिख ही शृंगार है,

मेरी पत्नी इसे बुहारकर रोज़ बाहर फेंक आती है ।
खाता है क्या, पीता है क्या,
कितनी जगह घेरता है ?
दुत् पड़ी रहने दो, फूटी कौड़ी है
बेमोल की ।