भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हारा अहसास / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:26, 20 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनीष मूंदड़ा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तुम्हारे पास होने के अहसास भर से
जि़ंदगी की तमाम मुश्किलें, जैसे मुझसे दूर हो जाती हैं
सोचो गर तुम वाकई में मेरे साथ होते
तो मुश्किलों का क्या हश्र होता?
तुम्हारी यादों के सहारे होने के अहसास भर से
जि़ंदगी की सारी गिरहें, जैसे गुम-सी हो जाती हैं
सोचो गर तुम वाक़ई में मेरे साथ होते
तो जि़ंदगी का ताना बाना कितना ख़ूबसूरत होता
तुम्हारे साथ बिताए वह एक-एक पल के असर भर से
मेरे आज भी कितने सुलझे-सुलझे से लगते हैं अब
सोचो गर तुम मुझसे फिर आ मिल जाओ
तो मेरे आने वाले कल के रास्ते कितने सुहाने हो जायेंगे?