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विरह वर्णन / मदन वात्स्यायन

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रोज़ शाम को जो तू धूपबत्तियाँ जलाया करती थी
उन की राख धीरे-धीरे उड़ गई है;
वहाँ खिड़की के सिल के चूने पर एक मटमैले धब्बे से,
पर आधी रात को मेरे इस कमरे में आज भी सुवास है ।

जानती हो ? हवादार झिल्ली के सिलपर जो तुमने
खड़ों के अँटकने के लिए बान्धे थे तार,
वहाँ का गौरैया का बच्चा कल से
उड़ के मेरी तुलसी की डालपर बैठता है ।

कल आँगन में से उखाड़कर एक छोटी मूली
ले आया शाम के नाश्ते पर रामू;
अभी अज्जू थी, तीखी न हुई थी,
पर आँखें भर आईं ।

कभी जो तबियत उदास रहती है
तो दो-तीन रोटी भी गले से उतरती नहीं;
कहीं जो रामू दे जाता है अँचार,
तो पूरी एक भी नहीं खाता ।

आज भी सुलाते हैं मुझे पड़ोसिन के बिहाग,
आज भी जगाती है मुझे उषा चहकती;
बस, रामू को पुकारती एक पतली आवाज़ नहीं है
और कुछ भी नहीं है ।

अभी तेरी छुट्टी के पैंतीस दिन हैं — 
अगर दो दिन की छुट्टी लेकर लिवा लाने
चला जाऊँगा तो तैंतीस,
अब आज तो बीत ही चला, बत्तीस समझो,
कल दिन-भर व्यस्त हूँगा तो इकतीस, गोया एक मास,
तीस रोज़ !