भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अहिंसा आहत है / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:22, 23 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हिंसा से होड़ में
प्रकृति भी कमर कसे है
बादलों के बदल गए तेवर
नदियाँ विद्रोह पर उतारू
सूरज के चढ़ते पारे से
ग्लेशियर पिघल कर
बह रहे धरती पर
झरने पहाड़ों में समा गए
लहलहाती हिंसा कि फसल पर
न चिड़ियाँ चहचहातीं
न भंवरे मंडराते
तितलियाँ हवा में ठिठकीं
कर रहीं प्रतीक्षा
अहिंसा के बिरवे का
फूलों का कलियों का
नई सदी की मुनिया
अपनी किताब के पन्नों पर
महावीर, गौतम, गांधी को
पहचान नहीं पा रही
बस पीठ ही दिख रही उनकी
पलायन के इस तंत्र में
अहिंसा आहत है