भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाबू की याद में / संतोष श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:40, 23 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न पेड़ हैं न चिड़िया
न पतंग है न डोर
आकाश में है जहाजों का शोर
कैसे छुए हवा मन का छोर
बताओ तो बाबू?
डिब्बाबंद खानों की
दरवाजों की घंटियों की
कारों, रेलों, बसों के शोर की
भीड़ में गुम आदमियों के रेलमपेल की
मैं आदी कहाँ थी बाबू?
यह शोर दीवारों को तोड़ता
दरवाजों से रेंगता
घर में घुस आता है।
और मैं अकबका जाती हूँ
मैंने कहा था न बाबू।
मत करना अपने से दूर
मत भेजना परदेस
तुम्हारी याद
छील जाती है
समय का पोर-पोर उठती है मेरी चौखट से
जा पहुँचती है तुम तक
सुनहले दिनों की कटी हुई कतरने
जब मुँह उठाती हैं
तो बडी टीस होती है बाबू महानगर में खप तो गई हूँ पर जितना खपती हूँ तुम उतने ही दूर लगते हो तुम्हारा दूर लगना ज़िन्दगी से अलगाव है बाबू