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कैसे सज्दा करूँ / संतोष श्रीवास्तव

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वो था बादल का फटना
या रंजिश कोई
ज़र्रा ज़र्रा ज़मीं तू डुबोता रहा
वो घनेरी लताएँ
गगन चूमते उन पहाड़ों के
बांके शज़र
अब न आते नज़र
हद की नज़रों में बस है
उफनता, मचलता
लील जाने पर आमादा
सैलाब बस
हाँ, कि सैलाब बस
तू कहाँ है बता
इस तबाही की कोई
वजह तो बता
जबकि सब कुछ है तेरे
इशारों पर तय
क्यों नहीं दी उन्हें
जिंदगी की सुबह
जिनके हक में थी तेरी
इनायत करम
तूने ढाया है उन पर
गज़ब का सितम
कैसे सज़्दे में तेरे
झुकूँ मैं बता