भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किनारे पास आने लगे हैं / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:02, 23 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हवाओ में सरसराता है
एक कांपता स्वर
और नदी के बहाव में
खलबली मच जाती है
किनारे सहम जाते हैं
नीड के पंछी
फड़फड़ाते है
अचानक नदी में लपटे
उठने लगती हैं
किनारे थरथराते हैं
भटकती हवा जैसे
चीत्कार कर रही है
वे नदी में
विसर्जित कर रहे हैं
सोलह बरस की
सती की अस्थियाँ
उसके साठ बरस के
पति की अस्थियो
के साथ
वह लोमहर्षक पल
पहले भी देखा था
किनारो ने
जब निर्दय साजिश से
कच्ची मिट्टी के घड़े के
संग डूबी थी सोहनी
महिवाल के इश्क में
नदी में अब चाँद
नही उतरता
सूरज नहीं डूबता
सितारे नहीं झिलमिलाते
नदी सिकुड़ने लगी है
किनारे पास आने लगे हैं
किनारो का मिलन
भयावह त्रासदी को
आमंत्रण है