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चिंगारी / संतोष श्रीवास्तव

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चिंगारी कभी नहीं मरती
दबी रहती है मुर्दा राख में
हवा पाते ही
भड़क उठती है
फिर चाहे वह
हौंसलों की हो
इरादों की हो
या फिर जज़्बातों की
चिंगारी जब पिघलती है
मोम की तरह
तो लावा शरमा कर
दुबक जाता है पहाड़ों में
बरसों बरस की
गुमशुदगी झेलता
चिंगारी जब
बसंत के आईने में
जिंदगी की सूरत
दिखाती है
तो खिल पड़ते हैं टेसू
लग जाती है
कोमल आग-सी
जो प्यास के सारे
तजुर्बों को झुठला कर
तब्दील हो जाती है
इश्क की कशिश में
और कहीं दूर हंसती है चिंगारी
मैं भी रफ्ता-रफ्ता
अपने नसीब की
सारी की सारी
चिंगारियाँ
दबोच लेती हूँ
अपने ख्वाबों को
सुर्ख करने के लिए