भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुल की तरह / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:21, 24 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मेरे आसपास
कुहासे का विस्तार
रात का तीसरा पहर
पलकों पर बोझ-सा
और हर सोच सपनों से लदी
कुहासे के आर पार
कुछ नहीं दीखता
घुटती-सी लगती है सांसे
सांसो में समाते कुहासे के सिवा
कहीं कुछ नहीं
जिसे अपना कह सकूं
मैं सपनों के बोझ तले
पत्ते-सी कांपती
और पत्ते को दबोचता कुहासा
ये मेरे लफ्ज़
अपनी गहराई ...सदका...
और मैं अंधेरे से टूटी
अंधेरे का टुकड़ा
अपनी पराजय को परे ढकेल
कुहासे को भेद
अंधेरे पर बिछुंगी
एक पुल की तरह