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आंच / संतोष श्रीवास्तव
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माथे पर देश की मिट्टी का
तिलक कर
तुम चले गए सरहद पर
और मैंने निपट तनहाई में
प्रेम की माटी में
विरह का बिरवा रोप दिया
मौसम गुजरते रहे
बिरवे में बर्दाश्त की कोंपलें
लहलहाई
पीड़ा के फूल सुलगे
रंगों की कांपती खामोशी लिए
तितलियाँ मंडराई
पतझड़ में सब कुछ
मिट्टी में समा गया
तुम भी
तुम्हारी स्मृति लिए
मैं भी
अब बिरवा ठूंठ है
और
मेरे शीश पर
शहीद की विधवा का सूरज है
कौन देख रहा है
उस सूरज की आंच से
निरंतर झुलसता मुझे