भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आंच / संतोष श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:24, 24 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माथे पर देश की मिट्टी का
तिलक कर
तुम चले गए सरहद पर
और मैंने निपट तनहाई में
प्रेम की माटी में
विरह का बिरवा रोप दिया

मौसम गुजरते रहे
बिरवे में बर्दाश्त की कोंपलें
लहलहाई
पीड़ा के फूल सुलगे
रंगों की कांपती खामोशी लिए
तितलियाँ मंडराई

पतझड़ में सब कुछ
मिट्टी में समा गया
तुम भी
तुम्हारी स्मृति लिए
मैं भी

अब बिरवा ठूंठ है
और
मेरे शीश पर
शहीद की विधवा का सूरज है
कौन देख रहा है
उस सूरज की आंच से
निरंतर झुलसता मुझे