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प्रिय तारक / महेन्द्र भटनागर
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यदि मुक्त गगन में ये अगणित
तारे आज न जलते होते !
कैसे दुखिया की निशि कटती !
जो तारे ही तो गिन-गिन कर,
मौन बिता, अगणित कल्प प्रहर,
करती हलका जीवन का दुख।
कुछ क्षण को अश्रु उदासी के
इन तारे गिनने में खोते !
:
फिर प्रियतम से संकोच भरे
कैसे प्रिय सरिता के तट पर,
गोदी के झूले में हिल कर,
कहती, 'कितने सुन्दर तारक !
आओ, तारे बन जाएँ हम।'
आपस में कह-कह कर सोते !