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जब दुर्गावती रण में निकलीं / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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जब दुर्गावती रण में निकलीं,
हाथों में थीं तलवारें दो।
हाथों में थीं तलवारें दॊ,
हाथों में थीं तलवारें दॊ।
जब दुर्गावती रण में निकलीं,
हाथों में थीं तलवारें दो।

धीर वीर एक नारी थी वह,
गढ़मंडल की महा रानी थी।
दूर-दूर तक थी प्रसिद्ध,
सबकी जानी-पहचानी थी।
उसकी ख्याती से घबराकर,
मुगलों ने हमला बोल दिया।
विधवा रानी के जीवन में,
बैठे ठाले विष घोल दिया।
मुगलों की थी यह चाल कि अब,
कैसे रानी को मारें वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं,
हाथों में थीं तलवारें दो।

सैनिक वेश धरे रानी थी,
हाथी पर चढ़ बल खाती थी।
दुश्मन को गाजर मूली-सा,
काटे आगे बढ़ जाती थी।
तलवार चमकती अंबर में,
दुश्मन का सिर नीचे गिरता।
स्वामी भक्त हाथी उनका,
धरती पर था उड़ता-फिरता।
लप-लप तलवार चलाती थी,
पल-पल भरती हुंकारें वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं,
हाथों में थीं तलवारें दो।

जाती थी जहां-जहाँ रानी,
बिजली-सी चमक दिखाती थी।
मुगलों की सेना मरती थी,
पीछे को हटती जाती थी।
दोनों हाथों वह रणचंडी,
कसकर तलवार चलाती थी।
दुश्मन की सेना पर पिलकर,
घनघोर कहर बरपाती थी।
झन-झन ढन-ढन बज उठती थीं,
तलवारों की झंकारें वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं,
हाथों में थीं तलवारें दो।

पर रानी कैसे बढ़‌ पाती,
उसकी सेना तो थोड़ी थी।
मुगलों की सेना थी अपार,
रानी ने आस न छोड़ी थी।
पर हाय राज्य का भाग्य बुरा,
बेईमानी की घर वालों ने।
उनको शहीद करवा डाला,
उनके ही मंसबदारों ने।
कितनी पवित्र उनके तन से,
थीं गिरीं बूंद की धारें दो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं,
हाथों में थीं तलवारें दो।

रानी तू दुनिया छोड़ गई,
पर तेरा नाम अमर अब तक।
और रहेगा नाम हमेशा,
सूरज चंदा नभ में जब तक।
हे देवी तेरी वीर गति,
पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते हैं।
तेरी अमर कथा सुनकर ही,
दृग में आंसू आ जाते हैं।
है भारत माता से बिनती,
कष्टों से सदा उबारें वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं,
हाथों में थीं तलवारें दो।

नारी की शक्ति है अपार,
वह तॊ संसार रचाती है।
माँ पत्नी और बहन बनती,
वह जग जननी कहलाती है।
बेटी बनकर घर आंगन में,
हंसती खुशियाँ बिखराती है।
पालन-पोषण सेवा-भक्ति,
सबका दायित्व निभाती है।
आ जाए अगर मौका कोई,
तो दुश्मन को ललकारे वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं,
हाथों में थीं तलवारें दो।