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सोनजुही की गन्ध भर गई / मधु प्रधान
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बेसुधि के कुछ
पल मेरे थे
शेष तुम्हारा
पागलपन था
एक तरल अनुभूति शून्य की
तुम जो चाहे नाम इसे दो
सपनों का व्यामोह कहो या
चिर अतृप्ति का नाम इसे दो
अवरोधों में
पली उर्मि का
सरल सहज सा
उद्वेलन था
दीपशिखा के कम्पित उर में
सोनजुही की गन्ध भर गई
तपती हुई धूप में बदली
मधुर सावनी छन्द भर गई
चिर अभाव की
भाव-भूमि पर
मृदु भावों का
आलोड़न था