क्यों न मैं विस्तार दे दूं / प्रगति गुप्ता
आज तुम्हारे एक स्वप्न को
क्यों न मैं विस्तार दे दूं...
किसी झील के किनारे
बैठ तेरे संग तेरे स्वप्न में
मेरे स्वप्न को भी पिरो दूँ...
निःशब्द शांत-
आस-पास का वातावरण हो
ओढ़कर तेरी कुछ कही-अनकही
बातों का चोला,
मैं झील की शांत हल्की-हल्की लहरों-सा
अपने मन ही मन में तुझे गुनु...
रख तेरी गोद में सिर
बंद नयनों से तेरी धड़कनों की
तेरे से मुझ तक आती
पदचापें महसूस करती चलूँ...
दूर कहीं से आती
कोयल की कुहुक हो या
झील में मछलियों का विचरण
सब उन स्पंदनों-सा ही महसूस हो,
जिनके होने की परिकल्पना
तेरे स्वप्न से होकर
मेरे स्वप्न से जा मिली हो...
हर वृक्ष की एक दूजे में
गुंथी हुई शाखाएँ
और उन पर मंद बहती बयार में
हौले-हौले से स्पर्श करती हुई
असंख्य पत्तियों का
एक ही दिशा में हिलकर
बहुत हमारे मन की सी
हो अपनी-सी सहमतियाँ...
और स्पर्श तेरी उंगलियों की पोरों का
मेरे बालों की तहों तक
मेरे नयनों की उन अश्रु बूंदों से बंधा हो
जिनका विलग होना
एक दूजे के निर्वात को महसूसता हो...