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प्रतीक्षारत चिरकाल से / प्रगति गुप्ता

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तुम्हारी प्रतीक्षा में बोए न जाने
कितने स्वप्न लड़ियों में
पिरो-पिरो कर मैंने...
कैद करने चाहे आसपास तैरते
न जाने कितने विचार भाव
पलपल घुमड़ते नयनों के तले...
यूँ तो तुम्हारा आना न आना
बन अश्रु मेरी पलकों से
पलपल झांकता रहा...
फिर कहीं मन की देहरी पर
विश्वास की न जाने कितनी
अल्पनाएँ उकेरता रहा...
भावों से बाँध मेरे मन हृदय को
तेरे आने की आस जगाता रहा ...
तुम्हारे आगमन की आहटें
परछाइयों-सी पल-पल चलते
चलचित्रों-सी चलती रही...
तुम्हारे साथ होने की अनुभूतियाँ
शून्य में भी रंगों की
एक दुनिया बिखरती रही...
तुम्हारे आगमन की आहटें
दबे पाँव मन हृदय में प्रविष्ट होती रही...
तुम आओगे अवश्य
नयनों के चिराग़ रोशन कर
आस जगाती रही...
इन प्रतीक्षारत क्षणों ने
भावों की सब ऋतुओं से मुझे भिगो दिया
चिराकाल से प्रतीक्षारत मेरे हृदय को
प्रतीक्षा में प्रेम की,
बाट जोहना सिखा दिया...