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जीने की आस / प्रगति गुप्ता

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तुमसे मिल कर ये जो जीने की
एक आस सी जगी है
पहले कहीं खामोश सी बैठी थी
मेरे अन्दर ही अन्दर
अब मानो उठ कर
संग-संग चलने लगी है...
जीवन्त हो उठा है
मेरा उठना बैठना और चलना भी...
मानो-
एक लय और ताल
मुझे उकसा जीने को
एक अनंत-से सुख में
मुझे डूबोने लगी है...
बैठ जाना चाहती हूँ
अब स्वयं को खोकर
इनकी नैसर्गिक सी स्नेह भरी
अनुभूतियों की छाँव तले...
क्योंकि विदा लेने से पहले,
यह सब उस परम का कोई
अनुपम उपहार-सा मुझे लगता है...
जीवन के रहते जीवन्त से
उस परम सुख का
यूँ अचानक मिलना
मेरे किसी सत्कर्म का हिस्सा लगता है...
यूँ तो झुकाती हूँ हर रोज ही
उसके आगे अपना शीश
पर अब तो उसमें पूर्णतः
खो जाने को मेरा जी करता है।