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सफ़र / प्रदीप कुमार

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इस घर से उस घर का स़फर
आंगन-आंगन, शहर-शहर।
ख्वाबों की तस्वीर किधर
इंद्रधनुष के रंग जिधर
आधी ज़िन्दगी बाबुल के आंगन
बाकी आधी पिया के घर
इस घर से उस घर का स़फर
आंगन-आंगन, शहर-शहर।
कभी झील में कंवल खिले जैसे
कभी सागर में तूफां उठे जैसे
कभी लंबे सफ़र में सराय बने
कभी दीपों के उत्सव में जगमगाएँ फिरे
उस घर की खुशियों का आधार
इस घर को दे नया आकार
सबकी इच्छाओं पर करती अमल
अपनी रखती फिर भी उधार
वो चलती रहती बिना रूके
प्रवाहमयी बहती बस निर्झर
इस घर से उस घर का स़फर
आंगन-आंगन, शहर-शहर