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चांद / महेन्द्र भटनागर

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चांद आसमान में निकल रहा,
श्याम रूप रात का बदल रहा !
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  मुँह पुनीत प्यार से भरा हुआ,
मन सरल दुलार से भरा हुआ,
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आ रहा किसी सुदेश से अभी,
मंद - मंद मुसकरा रहा तभी !
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साथ रोशनी नयी लिए हुए,
वेश मौन साधु-सा किए हुए ;
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नींद का संदेश भेजता हुआ ,
स्वप्न भूमि पर बिखेरता हुआ,
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  दूर के पहाड़ से सरक-सरक,
झूल पेड़-पेड़ में, झलक-झलक,
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  और है न ध्यान, खेल में मगन,
सिर्फ़ एक दौड़ की लगी लगन !
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आसमान चढ़ रहा बिना रुके,
ढाल औ' चढ़ाव पर बिना झुके !
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  चांद का बड़ा दुरूह काज है,
  व्योम का तभी न चांद ताज है !