रूठ गये हो प्रिय तुम ऐसे / रंजना वर्मा
रूठ गये हो प्रिय तुम ऐसे माने नहीं मनाने से।
संदेशों के पवन झकोरे रोक दिये क्यों आने से॥
व्यथा पंथ की मैं अनुगामिनि
काँटों भरी मिली राहें,
कब बन सकी भाग्य हैं मेरा
व्याकुल प्रेमातुर बाहें।
वीराने में फूल खिल उठे प्यार तुम्हारा पाने से।
संदेशों के पवन झकोरे रोक दिये क्यों आने से॥
सतरंगी सपने दे दृग को
क्यों दो जीवन जोड़ दिये?
वादे किये न जाने कितने
और स्वयं ही तोड़ दिये।
सूख गयीं कलियाँ गुलाब की सिर्फ़ तुम्हारे जाने से।
संदेशों के पवन झकोरे रोक दिये क्यों आने से॥
तपती हुई दोपहर संगी
जीवन ज्यों सूखा मरुथल,
मीठे जल का स्रोत न कोई
या हरीतिमा कि हलचल।
शीतल सुखद समीर तुम्हें छू आये किसी बहाने से।
संदेशों के पवन झकोरे रोक दिये क्यों आने से॥
यह अनाम सम्बंध हमारा
कितना तो तड़पायेगा,
तुम ही कहो क्या मन का नाता
कभी नहीं जुड़ पायेगा।
जुड़ा दर्द से रिश्ता साथी तेरे आँख चुराने से।
संदेशों के पवन झकोरे रोक दिये क्यों आने से॥
केवल मन का साथ तुम्हारे
माँगा फैलाकर आंचल,
नियति न जाने अब भविष्य के
रंग दिखाये क्या प्रतिपल।
भीगी पलकों को दे दो कुछ सपने मधुर सुहाने से।
संदेशों के पवन झकोरे रोक दिए क्यों आने से॥
कलम हुई अब तो प्रतिबंधित
कोरे कागज-सा जीवन,
अर्घ्य आंसुओं का नैनों में
कर में पतझड़-सा सावन।
थका पपीहा साँसों का तुम आये नहीं बुलाने से।
संदेशों के पवन झकोरे रोक दिये क्यों आने से॥
नहीं चाहते यदि तुम तो हो
क्यों लिखने की लाचारी,
मौन तुम्हारा टूट न पाया
लाख जतन कर के हारी।
अब न लिखूँगी कसम तुम्हारी बने रहो बेगाने से।
संदेशों के पवन झकोरे रोक दिये क्यों आने से॥