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उर आँगन के द्वार खड़ा जो / रंजना वर्मा

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उर आँगन के द्वार खड़ा जो मन का मीत न जा पायेगा॥

मधुर भावनाओं का आँचल
थाम खड़े हैं स्वप्न सलोने,
उर से उठ कर सुख की लहरें
लगी प्रीति के तार भिगोने।

मन वीणा तारों पर कोई नव संगीत न गा पायेगा।
मन का मीत न जा पायेगा॥

अरमानों के अगणित दीपक
जगमग करते अँधियारे में,
माटी के तन की लघु आभा
बह जाती गति के धारे में।

अब मन के उपवन में कोई बन कर प्रीत न आ पायेगा।
मन का मीत न जा पायेगा॥

समय तोड़ देता सब बंधन
रीतें सदा मिटा करती हैं,
प्रतिबंधों के आयामों में
आशा सदा लुटा करती है।

अब उर अम्बर में नव बन्धन बन कर रीत न छा पायेगा।
मन का मीत न जा पायेगा॥