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पत्र तुम्हारा रखा सामने / रंजना वर्मा

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पत्र तुम्हारा रखा सामने अगणित भाव भरे हैं मन में
किंतु उन्हें अभिव्यक्ति दे सके ऐसे शब्द कहाँ से लाऊँ।
कैसे मन की बात बताऊँ॥

औरों पर क्या पत्थर मारेंखुद बैठे जब शीश महल में
बाहर का कोलाहल कैसे सुन पायें मानस कल-कल में।
जग से भागू किंतु हृदय से अब मैं भाग कहाँ पर जाऊँ।
कैसे मन की बात बताऊँ॥

बहुत भीड़ है शोर असीमित कैसे सुनूँ आज अंतर स्वर
अचिर स्फुटित स्वरों को बाँधे बने न अब तक ऐसे अक्षर।

असम्बद्ध-सी है मन वीणा मैं सुर ताल कहाँ से लाऊँ।
कैसे मन की बात बताऊँ॥

तुम अनलिखी बात पढ़ लोगे है ऐसा विश्वास हृदय में
इसीलिए शब्दों की नगरी में भटकूँ या मौन निलय में।

चिर पुंजित विश्वास हमारा मूक गीत मैं जिसके गाऊँ।
कैसे मन की बात बताऊँ॥