भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब भी भोर खिली फूलों पर बिखरी शबनम होती है / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:20, 4 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=आस क...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब भी भोर खिली फूलों पर बिखरी शबनम होती है।
जाने किस दुख से यह रजनी लिपट धरा से रोती है॥

संरक्षक बन कोमलता के ही तो कांटे हैं उगते
चुपके चुपके हवा नशीले बीज स्वप्न के बोती है॥

हर पत्ती हरियाली खो कर है पीली पड़ती जाती
इसीलिए इन वृक्ष पिताओं की क्या आँखें रोती है॥

जब तब भ्रमर लुटेरों का दल उपवन में है घुस आता
लुट जाते हैं सुमन कली फिर भी मधुकोष सँजोती है॥

आदर्शों की लगी बोलियाँ गली-गली सच है बिकता
हुई आस्था बाँझ धरा भी अपना धीरज खोती है॥