भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काले भेडि़ए के ख़िलाफ़ / वेणु गोपाल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:41, 6 सितम्बर 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वेणु गोपाल |संग्रह=हवाएँ चुप नहीं रहतीं / वेणु गोपाल }} <po...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


देखो
कि जंगल आज भी उतना ही ख़ूबसूरत है। अपने
आशावान हरेपन के साथ
बरसात में झूमता हुआ। उस
काले भेड़िए के बावजूद
जो
शिकार की टोह में
झाड़ियों से निकल कर खुले में आ गया है।

ख़रगोशों और चिड़ियों और पौधों की दूधिया
वत्सल निगाहों से

जंगल को देख भर लेना
दरअसल
उस काले भेड़िए के ख़िलाफ़ खड़े हो जाना है जो
सिर्फ़
अपने भेड़िए होने की वज़ह से
जंगल की ख़ूबसूरती का दावेदार है

भेड़िए
हमेशा हमें उस कहानी तक पहुँचाते हैं
जिसे
वसंत से पहले
कभी न कभी तो शुरू होना ही होता है और
यह भी बहुत मुमकिन है
कि ऎसी और भी कई कहानियाँ
कथावाचक के कंठ में
अभी भी
सुरक्षित हों। जानना इतना भर ज़रूरी है
कि हर कहानी का एक अंत होता है। और
यह जानते ही
भविष्य तुम्हारी ओर मुस्करा कर देखेगा। तब
इतना भर करना
कि पास खड़े आदमी को इशारा कर देना

ताकि वह भी
भेड़िए के डर से काँपना छोड़
जंगल की सनातन ख़ूबसूरती को
देखने लग जाए।

(रचनाकाल : 14.08.1975)