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एकदम असमय / वेणु गोपाल

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बरसात को देखता हूँ तो
भीड़-भाड़ भरे उस खंडहर-हुलास तक
पहुँच जाता हूँ जो
मेरी आँखों में
भरपूर होता है।

मेरी आँखें
मुझ से ज़्यादा दूर नहीं हैं। कभी
नहीं होतीं। हालाँकि
उनकी दुनिया
मुरदा ही जन्मी थी और
हर बरसात में
अछूती ही रही थी। सिवाय

इस बरसात के
जिसमें
वह दुबारा ज़िंदा हुई है। समय

एकदम असमय है और कुछ
ऎसे फूहड़ तरीके से लेटा हुआ है
कि उसके पाँव
सड़कों पर हैं और धड़
मेरी आँखों की ज़िंदा हो चुकी
दुनिया के बीचोंबीच।

उसके पाँव
बरसात में भीग रहे हैं
और मैं
उन्हें
और बरसात को
देख रहा हूँ। आँखों के साथ।
उसकी दुनिया के साथ। और
उस खंडहर-हुलास
के साथ

जिसमें
कोई गुप्त बैठक हो रही है
इस वक़्त।

(रचनाकाल : 10.09.1975)