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मेरी दुपहिया की टुनटुनी / रणविजय सिंह सत्यकेतु

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दुपहिया मेरी
दौड़ती उस पथखण्ड पर
जहाँ गौरैया का घोसला है
जिसकी टुनटुनी से
बगल में दाना चुग रही पड़ोकी
और काठ खोदता कठपोड़वा
उड़ जाते हैं साथ-साथ
बैठ जाते हैं बिजली के तारों पर
झाँकते रहते हैं इधर-उधर
ऊबड़-खाबड़ सड़क पर
टूटे चप्पलों और फटे-चीथड़ों को
कि कहीं कुछ खाने का तो नहीं....
कौवे की काँव-काँव की तरह
बन जाती है भक्षकों की दुश्मन
मेरी दुपहिया की टुनटुनी
चौकन्ने हो जाते हैं परिन्दे
चेत देते हैं बच्चों को
घेर लेते हैं अण्डों को
जिन्हें घूर रहा होता है
झाड़ी से विषधर
शीशम की फुनगी से बाज़....
किन्तु, तब क्या क्या होगा
जब चन्द दिनों बाद
बदल जाएगी
मेरी प्यारी दुपहिया
खटहरे में ?
तब भी क्या कभी बजेगी टुनटुनी ?
बचेंगे निरीह प्राणी नासूर से ?
तब भी क्या कोई प्रतीक उभरेगा सतर्कता का ?
बन सकेगा कोई पर्याय निर्गुटता का ?
जबकि बबूल, बेल और कटैया भी
हिंसकों के समर्थन में
रखते हैं प्रतिद्वन्द्विता
मेरी दुपहिया से....
‘जंगल सम्मेलन’ निरीहों का होगा
‘पृथ्वी सम्मेलन’ और ‘निर्गुट आन्दोलन’ की तरह
बल्कि आत्मरक्षा और सम्मानपूर्ण ग्रास बनने के लिए
उन्हें बनना ही पड़ेगा
गुटों का मोहताज
क्योंकि झाड़ी से फुनगी तक
उनका ही साम्राज्य है....
काश, सदाबहार बन जाती
मेरी दुपहिया की टुनटुनी !