यात्रा… भीतर-बाहर / कुमार विकल
काली हवा का एक झोंका कहीं से आता है
और मेरा परिवार,प्रियजन,दोस्त,दुश्मन
घर नगर,बाज़ार
मुझसे कहीं दूर चले जाते हैं
या मैं ही कहीं दूर चला जाता हूँ
काली हवा के संग
हिम—प्रदेशों की ओर
बर्फ़ की शिलाओं पर
और सहसा पहुँच जाता हूँ किसी अंधी गुहा में
जहाँ चारों तरफ़ फैला अँधेरा है
इसी ठंडे अँधेरे में
यात्रांत की प्रतीक्षा में
मेरे शरीर पर कुछ हिमशिला—सा टूटता है
और लगता है कि मेरी देह के
सारे धर्म अब छूट जायेंगे
आलोकित रास्तों के पेड़—पौधों पत्तियों से
सभी नाते टूट जायेंगे
तभी मैं देखता हूँ
हिमगुहा के द्वार पर शायद कोई कंदील जलती है
जो जलते इंगितों से
मेरे हिम—बिद्ध शरीर को वापिस पुकारती है
इसी जलते इशारे पर मैं वापिस लौट आता हूँ—
कि घर नगर परिवार प्रियजन प्रतीक्षारत होंगे
आग के तोरण सजाकर
मुठियों में आँच भर कर
स्वागत करेंगे|
और मैं—
नगर में लौट आता हूँ
अपनी पूरी जिजीविषा से
एक सूर्य—द्वार खटखटाता हूँ|