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कविता की भाषा / शिव कुशवाहा
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मैं कविता लिपिबद्ध नहीं
बल्कि कविता में रोपता हूँ स्वयं को
साहित्य के धरातल पर
इस आस में कभी न कभी तो अँखुआएँगी
कविता कि किल्लियाँ
हरियाएँगी कविता कि डालियाँ।
फिर कभी जब थक जाऊंगा इस जीवन-यात्रा में
तब लिखते हुए समय की इबारत के साथ
बह जाऊंगा भावों की गहरी नदी में।
सूरज की नई किरणों के साथ
सुवासित हो रही कविता कि भाषा
और मकरन्द कण की मानिंद
बिखर रही कविता कि आखिरी पंक्ति
कवि क्षितिज के उस पार निहारता है सूनी पगडंडियाँ...