भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जलता सूरज देख रहा हूँ / अभिषेक औदिच्य

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:33, 24 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अभिषेक औदिच्य |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अँधियारे की आँखों में मैं खलता सूरज देख रहा हूँ,
जलता सूरज देख रहा हूँ।

जिसकी एक किरण ने काली,
रजनी को उजला कर डाला।
जिसने कोने-कोने जाकर,
जग का अँधियारा हर डाला।
उस पर भी आरोप लगे हैं,
जो अनन्त से ही तटस्थ है।

घूम रही है धरती पर मैं चलता सूरज देख रहा हूँ।
जलता सूरज देख रहा हूँ।

शीत-लहर में खूब पुकारा,
गर्मी आई तो दुत्कारा।
फिर भी कर्तव्यों के पथ पर,
युग-युग चलता रहा बेचारा।
आरोहन से अवरोहन तक,
फिर अवरोहन से आरोहन।

तीन प्रहर अपमानित होकर ढलता सूरज देख रहा हूँ।
जलता सूरज देख रहा हूँ।

सूरज अस्त नहीं होता है,
धरती पीठ दिखा देती है।
इसकी यह कर्तव्यनिष्ठता,
जलना हमें सिखा देती है।
मैं भी जलता, मैं भी चलता,
अँधियारों को मैं भी खलता।

इसीलिए मैं अपने भीतर पलता सूरज देख रहा हूँ।
जलता सूरज देख रहा हूँ।