भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पानी की बूंदों का राग / शिव कुशवाहा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:24, 25 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिव कुशवाहा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर क्षितिज पर घिर रहे बादलों को
देखकर महसूसता हूँ
कि धरती बुझाती सी दीखती है
अपनी अभिशप्त पीड़ा
मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी और पहाड़
मनाते हुए उत्सव बादल की बूंदों का स्वागत करते हैं

प्रेमी युगल बादल से गिरी हुई बूंदों पर
उकेरते हैं प्रेम की अव्यक्त वर्णमाला
वे अपनी अनुभूतियों को विस्तार देकर
स्मृतियों की गुहा के उस पार
सहेज लेते हैं जन्मजन्मांतर तक

पानी की बूंदों का राग
बच्चों के लिए बूंदों का राग
उनके बचपन को लौटा लाता है
वे देर तक बूंदों के साथ करते हैं अठखेलियाँ
बूंदों पर कूद-कूद कर उसके राग से कदमताल करते हुए
बूंदों के राग को बना देते हैं गतिमान

सूख रही फसलों के लिए
बादल की बूंदों का राग लेकर आता है नया जीवन
किसान की आंखों में कौंध जाती हैं उम्मीदें
जब बादल की बूंदों का राग घुलता है परिवेश में

कभी कभी पानी की बूंदे बन जाती हैं बेहद खतरनाक
जब बाढ़ का पानी देहरी लांघकर
घरों में कर जाता है प्रवेश
भयावह लगती हैं बारिश की बूंदें और उसका राग
जिंदगी की अनेक अभीप्साएँ
बह जाती हैं पानी के बूँदों के साथ

पानी की बूंदों का राग
कहीं प्रेम के असीमित पंख खोलता है
कहीं खेलने का असीमित स्पेस देता है
कहीं आशाओं के खेत पर फुहार बन स्वप्न संजोता है
और कहीं बहा ले जाता है
शेष जीवन की अधूरी ख्वाहिशें

बिखरते हुए समय की दहलीज़ पर
बाढ़ की विभीषिका को भांपते हुए
सतह पर उभर आयी लकीरों के गाढ़ेपन के साथ
पानी की बूंदों का राग
अब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल में समाहित होकर
विध्वंस की तरफ बढ़ रहा है लगातार...