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शब्दों की दुनिया / शिव कुशवाहा
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कविता के शब्द
अब कल्पनालोक में नहीं विचरते
वे जीवन के गहरी उदासियों की
महागाथा में संचरण कर
उगलते हैं रोशनाई की नई इबारत
कविता के बिम्ब
अपने स्याहपन को छोड़कर
सीधे सीधे पैठ जाना चाहते हैं
लोक की अन्तश्चेतना में
भाषा छोड़ रही है
अपनी परंपरागत प्रतीक योजना
वह कविता के साथ
नए भावबोध में व्यंजित हो रही है
कविता में गढ़े हुए प्रतिमान
तेजी से बिखर रहे हैं
अंधेरे में शब्दों की दुनिया
अपने अर्थ खो रही है
वह बदल रही है अपना परिवेश
कृत्रिम भावों का मुलम्मा फीका पड़ चुका है
भावों पर खतरे को महसूसते हुए
अंधेरे में डूबी हुई शब्दों की दुनिया
बढ़ जाना चाहती है
अपने उजलेपक्ष की ओर।
कि कविता अब मुस्कुराते हुए
अपने नए शिल्प में
मुकम्मल होने का इंतज़ार कर रही है...