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सभाध्यक्ष हंस रहा है / सत्यनारायण
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सभाध्यक्ष हंस रहा है
रचनाकार | सत्यनारायण |
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प्रकाशक | पराग प्रकाशन, अभिरुचि प्रकाशन, ३/१४ कर्ण गली, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, |
वर्ष | 1987 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | नवगीत व कविताएँ |
विधा | मुक्त छन्द |
पृष्ठ | 100 |
ISBN | |
विविध | सत्यनारायण के पास गीत रचने की जितनी तरल सम्वेदनात्मक हार्दिकता है, मुक्त छन्द में बौद्धिक प्रखरता से सम्पन्न उतनी दीप्त और वैचारिक भी है। एक विवश छटपटाहट उनकी कविताओं में विशेषतः उपलब्ध होती है, जिसका मूल कारण आम आदमी की यन्त्रणा के सिलसिले का टूट न पाना है। ’जंगल मुन्तजिर है‘ की उन्नीस कविताएँ कवि के एक दूसरे सशक्त पक्ष का उद्घाटन करती हैं। शब्द की सही शक्ति का अन्वेषण ये कविताएँ एक व्यापक फलक का उद्घाटन करती है।
कवि यह भी मानता है कि ’अकेला‘ शब्द निहत्था होता है। उसके हाथ में और शब्दों के हाथ दे दो... वह हर मौसम में खड़ा रहेगा तनकर।‘ ’माँ की याद‘ और ’बाबूजी‘ यदि नये समय की परिवारों पर पड़ती चोट को व्यक्त करती कविताएँ हैं तो ’यक्ष-प्रश्न‘ फिर पौराणिकता में लौट कर नये सवालों को हल करने का प्रयास है। कवि को सबसे अधिक कष्ट यथा स्थितिवाद से है। इसीलिए वह सवाल करता है : आखिर कब तक यों ही चलेगा और तुम लगातार बर्दाश्त करते रहोगे ? मत भूलो, खेत में खड़ी बेजुबान फसल की तरह वह तुम हो जिसे बार-बार मौसम का पाला मार जाता है । |
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