महाश्वेता / कुमार विकल
पिछले दिनों
मैंने मृत्यु को बहुत निकट से देखा
महाश्वेता,विशाल काया
सारे शरीर पर बर्फ़ की लोमहर्षक पोशाक
सफ़ेद अँगुली के इशारे से मुझे बुलाती हुई
अपनी बर्फ़ानी भुजाओं में
बाँधने के निमंत्रण देती हुई
शराबखाने में मेरे पास खड़ी
मेरे कमज़ोर हाथों में
गिलास—दर गिलास थमाती रही
मेरे पेट में अल्सर का कैक्टस उगाती रही
मुझे अस्पतालों, मानसिक चिकित्सालयों में
भटकाती रही.
और मेरे शरीर पर अपनी प्रेत—लिपियों में
तरह—तरह की बीमार भाषाएँ लिखती रही
और मुझे बीमार भाषाएँ सिखाती रही
अपने हिमलोक में मुझे
हिमशिलाओं पर बनीं
मेरे पित्तरों और प्रियजनों की आकृतियाँ दिखाती रही
मुझे एक हिमशिला से दूसरी हिमशिला तक ले जाती रही.
… और जब मैं
नीम बेहोश हालत में
रात घर को लौटता
तो अक्सर
घर की सीढियों पर
मेरे साथ लेट जाती रही
लेकिन हर बार
मेरी जिजीविषा से हार जाती रही.
यह शायद इसलिए कि मैंने अपनी जिजीविषा को
एक बहुत बड़े संकल्प की भट्टी में तपाया था
और उससे ऐसा ताप पाया था
कि महाश्वेता की बर्फ़ीली बाहों में
सोने के बावजूद
एक बत्ती मेरी आँखों में टिमटिमाती रही
सीढियों के अँधेरे से
कमरे की रौशनी में ले जाती रही.