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छद्म क्रान्तिकारी / भारत यायावर

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वे घर से निकले
तलवारें लिए
जो काग़ज़ की थीं बनी हुईं
दमदार नहीं निकलीं

वे कायर थे
रहते थे केवल डरे-डरे
कहते थे बातें रक्तसनी
खूँखार नहीं निकले

उनकी बातों में हवा भरी
क्रान्तिकारी कहलाने का था शौक़ बहुत
बेक़ार बहुत निकले

वे हत्यारों के साथ खड़े
हंसते थे उनपर कविता में
वे सड़े हुए आलू से थे
सड़ान्ध बहुत करते