भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रथम सर्ग / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:54, 1 मई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध' |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विविध लता-तरुओं से गुम्फित, चित्रकूट पर्वत सुंदर।
मेरुदण्ड की तरह धरा पर पड़ा हुआ छवि-निधि मंदर॥
मन्दाकिनी नदी मनहरनी जिसके तल में बहती है।
'जीवन है गतिशील' निरन्तर कलकल ध्वनी में कहती है॥

सती-शिरोमणि अनुसूया का तपःपूत स्नेह सरल।
मन्दाकिनी नदी बन बहता शांत, कांत, अति दुग्ध धवल॥
किन्नरियों के अंगराग से, शीतल सलिल गमकता है।
सूर्य किरण से प्रतिबिम्बित हो, दर्पण सदृस दमकता है॥

जगह-जगह रमणीय मनोहर, सुंदर घाट सपाट बने।
अगल-बगल कुसुमित वृक्षों के मानों हरित कपाट बने॥
कर्दम-रहित किनारों पर ये सुन्दर घाट सुहाते हैं।
'आओ बैठो यहाँ शांति से' मानो मौन बुलाते हैं॥
 
विविध वर्ण के पुष्प तीर पर हँसते मंद, लहरते-से।
पयस्विनी की दुग्धधार में बहते और झहरते-से॥
चम्पक, बेंत, कदम्ब, मौलश्री, पाकर, जम्बु, रसालों के,
पंक्तिबद्ध हैं खड़े वृक्ष वट, पीपल और तमालों के॥

कहीं बाँस की बँसवारी है, कहीं बेल तरु बेल मढ़े।
कहीं प्रियाल, आँवला, कटहल के तरुवर सौन्दर्य जड़े॥
कहीं मधुपटल से रिस-रिसकर टप-टप शहद टपकता है।
कहीं गगनचुम्बी शिखरों पर माणिक पड़ा चमकता है॥

तट पर उगे प्रचुर पेड़ों की छाया जल में नाच रही।
स्वच्छ सलिल में चपल मछलियाँ रह-रह खूब कुलाँच रही॥
जटा, अजिन, वल्कल धारण कर ऋषिगण तट पर आते हैं।
प्रातः-सायं शांत सलिल में जी भर नित्य नहाते हैं॥
 
दूर तलक वृक्षों की छाया शीतल, शांत सुखद गहरी।
भोजपत्र का बिछा बिछावन जहाँ विरमती दोपहरी॥
गन्धर्वों के सरस गान से वातावरण सरसता है।
चित्रकूट में सुधा सुधाकर आकर रोज बरसता है॥

लता-पत्र, द्रुम-दल छाया में घूम जीव तृण को खाते।
सिंह-स्यार, मृग-बाघ एक ही साथ वारि पीने आते॥
यहाँ नहीं कुछ बैर-भाव है, यहाँ नहीं प्रतिहिंसा है।
बसे जहाँ पर राम, वहाँ पर हिंसा कहाँ? अहिंसा है॥

स्वतः उगे इन वृक्षों पर शुक-पिक करते रहते कूजन।
कमल वनों का मृदु प्राग पीकर करते मधुकर गुंजन॥
नित्य सुसौरभ लिए पवन जब दक्षिण दिशि से आता है।
कुड्मल-बेला वेणु-वनों में भारी धूम मचाता है॥

सारस तट पर, चक्रवाक के जोड़े धारा में तिरते।
इधर-उधर उन्मुक्त भाव से हैं सारे वनचर फिरते। ।
कहीं गुलाबी आँख लिए मोरों का झुण्ड सुहाता है।
कहीं आम के पत्तों में छिपकर पुंकोकिल गता है॥

विचर रहें हैं हरिण, आ रही मस्त गयन्दों की टोली।
किंचित् नहीं भीत कोई है सुनकर सिंहों की बोली॥
लटक रहे लंगूर दूर से बन्दर उन्हें खिझाते हैं।
कहीं बाघ को नाच दिखाकर भालू-रीछ रिझाते हैं॥

देखो गिरी से निकल मिल रहे सरिता में शीतल झरने।
मसृण लताएँ खड़ी ऐंठती पहन तुहिन कण के गहने॥
विपुल तड़ागों की श्री-शोभा सुर-नर का मन हरती है।
यहाँ इंद्र-नन्दनवन की सुन्दरता पानी भरती है॥

कितना स्वच्छ और निर्मल है पानी रुचिर तड़ागों का।
कितना सौरभ बिखर रहा है हरित-शुभ्र वन-बागों का॥
मन्द-मन्द मारुत झोकों से सिहर रहा निर्मल जल है।
मनो विहंसती प्रकृति परी का लहराता-सा अंचल है॥
कलकल निनाद छिड़ रहा प्रचुर पर्वत के रम्य प्रपातों से।
स्वच्छ चांदनी छिटक रही छन-छनकर द्रुमदल-छातों से॥
मन्दाकिनी नदी की आभायुक्त चमकती रेती है।
कहीं लताएँ झुके सुतरुओं को गलबाहीं देती हैं॥

कहीं भूमि ऊँची-नीची है कहीं सुसमतल खेत बने।
कहीं खड़े प्रहरी-से तरुवर, कहीं लतादि वितान तने॥
खेतों में गोधूम शस्य की लटक रही कैसी बाली?
अहा! चकित हो जिसे निरखता बेसुध मन मरीचिमाली॥

जहाँ-तहाँ ऋषि-मुनि के आश्रम आश्रय वर विद्याओं के।
विलस रहे हैं समाधान बन शंकाओं-चिन्ताओं के॥
वटुकवृन्द स्वाध्याय-निरत, कुलपति रत संध्या-वन्दन में।
तपःतेज-सम्पूरित जैसे आग छिपी हो चन्दन में॥

प्रकृति नटी ने चित्रपटी पर चित्रकूट-सा चित्र धरा।
चित्रकूट के कूट-कूट में कूट-कूट सौन्दर्य भरा॥
जग भर की साड़ी मनोज्ञता यहाँ सिमट कर आयी है।
इसीलिए श्री रामचन्द्र ने कुटी यहीं पर छायी है॥

दिवा-रात्रि रवि-शशि की किरणें क्षितिज लाँघ भू पर आतीं।
एक अतीन्द्रिय दिव्य लोक की विभा यहाँ छिटका जातीं॥
कितनी मनोहर कितनी शीतल, गिरी की हरित् वनाली है।
मनो करुण स्निग्ध प्रेम की बिछी यहाँ हरियाली है॥

अहा! परम रमणीय क्षेत्र यह इसकी छटा निराली है।
फूली-पहली बोझ से अवनत वृक्षों की हर डाली है॥
यहाँ वसन्त सदा बसता है, पतझड़ कभी न होती है।
रत्नाकर से खड़े वृक्ष सब, कौन खोजता मोती है॥

यहाँ व्रती हैं, धर्मनिष्ठ, खोजते 'परम' को फिरते हैं।
मोह-द्रोह-माया-मत्सर के यहाँ नहीं घन घिरते हैं॥
परोपकार में लीन, दयामय, शक्तियुक्त, सब हैं दानी।
धरा-धर्म के मेरु, धुरन्धर, सत्य-ज्ञान के सम्मानी॥
प्रमदाओं के पुष्ट पयोधर से न यहाँ मदिरा ढलती।
कलित कटाक्षों से न किसी भी साधक की छाती छिलती॥
यहाँ नारियाँ तपोधनों की सच्ची सरस सहायक हैं।
ऋध्दि-सिद्धि-सी प्रकट, प्रेरणा से सक्षम, सब लायक हैं॥

स्वर्गोपम है चित्रकूट, स्वर्गंगा सी मंदा बहती।
कुछ अनमिल निर्वेद भाव से यह किसकी गाथा कहती॥
किसका शास्वत मन्द धीर स्वर गूँज रहा इसके जल में?
कौन शक्ति है बसी बता दो चिति स्वरुप नीले तल में?

किसकी चर्चा सदा कर रहे ये ऋषिगण तट पर बैठे?
किसके मधु से भीग वृक्ष, ये खग कुल नित फिरते ऐंठे?
आज तनिक बतला दे मन्दा! उस अनन्त की मौन कथा।
कुछ पल के ही लिए शांत हो पगली फिरती ह्रदय व्यथा॥

निर्झर चारण सदृस कर रहा है बोलो किसका गायन?
किसके रवि-शशि नेत्र? हो रहा अगजग किससे मनसायन?
कौन सृष्टि के बाहर-भीतर? किसका विश्व विवर्तन है?
किसके कारण यहाँ हो रहा आवर्तन-परिवर्तन है?

हम कहते हैं जगत मात्र मिथ्या, प्रपंच माया-भ्रम है।
यहाँ राग-विद्वेष, भोग-लिप्सा, प्रतारणा का तम है॥
किन्तु ब्रह्म को पाने का संसार सुलभ सुन्दर क्रम है।
'जगत व्यर्थ है' कहना निश्चय पागलपन है, विभ्रम है॥

दनुज सताते मनुज जाति को क्या इसको मिथ्या जाने?
सर्व सुहृद नयनाभिराम क्या राघव को कल्पित जानें?
नहीं, नहीं ये युगल सत्य हैं ब्रह्म और ब्रह्माण्ड निलय।
जल है लहर, लहर ही जल है; यही सत्य-ऋत निःसंशय॥

नृत्य और नर्तक क्या दोनों कभी भिन्न होने वाले?
कंठ और स्वर, राग-ताल क्या कभी छिन्न होने वाले?
सूर्य और उसका प्रकाश दोनों ही सत्य सुहाने हैं।
ब्रह्म और ब्रह्माण्ड सत्य, संसृति के ताने-बाने हैं॥
रहकर जग से अलग मगर हम अलग नहीं हैं रह पाते।
इसके बिना नहीं हम अपने मनोभाव को कह पाते॥
जगत हमारा कार्यक्षेत्र है, पौरुष ही तो जीवन है।
उसी महाचिति से आलोकित निखिल विश्व का कण-कण है॥

अरे! अरे! मैं कहाँ आ गया बातों में बहते-बहते?
क्या से क्या कह गया न जाने क्या से क्या कहते-कहते?
गूढ़ तत्व दर्शन के प्रायः निभृत प्रान्त में जगते हैं।
आत्मा को अध्यात्म-ज्योति की प्रखर किरण से रँगते हैं॥

सखे! सुदर्शन हेतु राम के इधर नहीं, उस ओर चलो।
जिन्हें देखने को व्याकुल हैं मेरे नयन-चकोर चलो॥
जहाँ कुटज से घिरे उटज में महावीर ने वास किया।
जिनके बल ने आर्य-संस्कृति को नूतन उल्लास दिया॥

जिनमें नहीं विलास-वासना, नहीं स्वर्ग-सुख की ईप्सा।
नहीं विभव-संग्रह का आग्रह, नहीं कर्म फल की लिप्सा॥
जिनके संग में अनुज लक्ष्मण और सिया-सी नारी है।
जीनके कारण आर्य-सभ्यता आज जगत में भारी है॥

सागर से गंभीर, हिमालय से महान धीरज धारी।
बल में विष्णु समान युद्ध में रुद्रदेव-से संहारी॥
दक्षिण कर में कर्म, सफलता जिनके बायें कर में है।
जिनकी चर्चा आज विश्व के हर कोने, हर घर में है॥

त्याग-तपस्या, सत्य-अहिंसा, शम-दमादि का रूप नवल।
दीप्तमान है दिव्य देह में द्वन्द्वातीत, अभीत, अमल॥
सात्विक संकल्पों का संचय निश्चय जिनके मन में है।
मानो प्रकट हुआ प्रिय सतयुग राम रूप इस वन में हैं॥

जिनका दुष्ट राक्षसों से मानव-विकास हित वैर ठना।
जो वाग्मी हैं, धीर धनुर्धर, शील-शिष्ट, निर्भीक मना॥
जिनके यश की धवल चाँदनी आज धरा पर फैली है।
जिनके सम्मुख दुष्ट शक्तियाँ फीकी हैं, मटमैली हैं॥
गुह-निषाद को सखा बनाकर उन्हें अनोखा मान दिया।
छली गयी मुनि-पत्नी को फिर से नव जीवन दान दिया॥
दुष्ट ताड़का औ' सुबाहु को जिसने मार गिराया है।
वही सूर्यकुल-केतु धर्म के हेतु स्वयं वन आया है॥

जिनने शिव का धनुर्भंग कर मान वीरता का रक्खा।
दुर्लभ सुधा-स्वाद के संग-संग स्वाद हलाहल का चक्खा॥
धर्म स्थापना हेतु यहाँ जो आये रघुकुल-नन्दन हैं।
उनका चित्रकूट में शतशः वन्दन है, अभिनन्दन है॥

पयस्वनी के सुघर किनारे से कुछ दूर उधर हटकर।
एक पर्ण की कुटी बनी है चित्रकूट गिरी से सटकर॥
अरे, मालती-कुञ्ज-बीच यह कुटी बनी कैसी सुन्दर।
जिसे सींचता ठीक बगल में बहता है पावन निर्झर॥

चारु दारु दीवार और यह पत्तों की सुंदर छाजन।
खींच रही है ध्यान, सादगी का कैसा आजन-गाजन॥!
वातायन से झाँक, सदय हो शीतल सुरभि थिरकती है।
वास्तु-कला इस पर्णकुटी पर सौ-सौ जान छिरकती है॥

आस-पास हैं फूल उगे कुटिया के चारो ओर विपुल।
आवेष्ठित वीरुध-वितान से लतर चढ़ी उस पर मंजुल॥
मह-मह करती रंग-बिरंगे नैसर्गिक वन-फूलों से।
आँख-मिचौनी खेल रही मानो मलयानिल झूलों से॥

तनिक दूर कुटिया से शोभित एक पवित्र यजनशाला।
दिव्य हवन से दीप्तमान है शिखामयी जिसमें ज्वाला॥
ओम और स्वस्तिक चिन्हांकित उसके निकट शिवाला है।
जहाँ धर्म, आचार, भक्ति ने आकर डेरा डाला है॥

रत्न-जटित जगमग करते-से यहाँ धनुष दो-चार पड़े।
तीक्ष्ण तिग्म बाणों से मण्डित त्रोंण कई कलधौत जड़े॥
कमठपीठ-सी कड़ी कठिन दो धरी हुई सुन्दर ढालें।
तडिल्लता-सी चम-चम करती, दीख रही हैं करवाले॥
शस्त्र-शास्त्र का पावन संगम, योग-भोग की यह लीला!
वल्कल वसन पहनकर रहती यहाँ वीरता बलशीला॥
कौन कह रहा योग-भोग का मेल नहीं हो सकता है?
कौन कह रहा धर्म-क्रांति के बीज नहीं बो सकता है?
 
देखो, प्रभु की यही कुटी है, छोटी, रम्य, सुखद, पावन।
रमें यहीं पर अनुज प्रिया के संग पूण्य-निधि, मन-भावन॥
तीन लोक के त्राता-रक्षक स्वयं राम ही आये हैं।
तभी विपिन के जीव-जन्तुओं के मृदु स्वर लहराये हैं॥

करते छाया मेघ, वृक्ष फूलों की डाली भर लाते।
एक साथ ही रामचन्द्र पर सुधा-सुमन हैं बरसाते॥
पत्ते उनके यशोगान में मर्मर-मर्मर करते हैं।
केकी-शुक-पिक-हंस मोड़ से अपने मृदु स्वर भरते हैं॥

पितु की आज्ञा मान विपिन में आये हैं रघुकुल-भूषण।
साथ साथ उनके आये हैं लखन लाल जग-अघ-दूषण॥
ब्रह्म-जीव के बेच प्र विद्या जैसे मुस्काती है।
उसी तरह श्री राम-लखन के बीच जानकी भाती हैं॥

अहा! देख लो, कामधेनु-सी यह प्रभुवर की गाय खड़ी।
रोमन्थन करती बछड़े के संग द्वार पर आन खड़ी॥
इसे स्वयं सीताजी अपने हाथों से नहलाती हैं।
घास खिलाती और प्रेम से इसका तन सहलाती हैं॥

कुटी-द्वार के ठीक सामने महा विटप बट के नीचे।
बनी हुई वेदिका एक जो समतल धरती से ऊँचे॥
अगल-बगल नित वहाँ बैठ वनवासी प्रवचन सुनते हैं।
रामचन्द्र के मधुर वचन सुनक्र मन-ही-मन गुनते हैं॥

छोटे हैं पर बड़े यशस्वी ज्ञानी हैं गुण के आकर।
जगा हमारा पुण्य पूर्व का सुखी हुए इनको पाकर॥
सत्यव्रती ये विनत भाव से सबका आदर करते हैं।
अस्पृश्य अन्त्यज जन को भी आसन सादर धरते हैं॥
इनमें वर्णश्रेष्ठता के मिथ्याभिमान का नाम नहीं।
छुआछूत-सी निम्न भावना से इनका कुछ काम नहीं॥
सब मनुष्य में परम ब्रह्म की छाया इन्हें दिखाती है।
'भेद-दृष्टि को दूर भगाओ' मानो हमें सिखाती है॥

हम ऋषियों की चरण-वन्दना करते हैं ये वीरव्रती।
सेवा में सदैव तत्पर रहतीं विदेहजा पुण्यवती।
गो-ब्राह्मण-पूजन, प्रतिपालन इनका धर्म सनातन है।
इनका दर्शन एक साथ ही नूतन और पुरातन है॥

अहा! देखकर इन्हें वासना-माया पास नहीं आती।
इन्हें देखकर तपोनिष्ठ ये छाती नित्य जुड़ा जाती॥
सुर या किन्नर या कि सृष्टि के परम ब्रह्म वपु धारे हैं।
नर-नारायण, काम या कि ये नील व्योम के तारे हैं॥

रामचन्द्र साक्षात् ज्ञान हैं, कर्म अनुज सौमित्र सबल।
जनकनन्दिनी उपासना-सी भास रहीं भास्वर उज्जवल॥
या कि त्याग, वैराग, भक्ति श्री राम, लक्ष्मण, सीता हैं।
या कि वीररस और रौद्र संग करुणा पुण्य पुनीता हैं॥

नील शैल या मरकत मणि-सा है शुचि स्वस्थ शरीर सबल।
पद्मगर्भ से नयन अरुण हैं, अधर अरण ज्यों रक्तकमल॥
स्वच्छ, शांत, पावन, प्रशांत, सरसिज-सा प्रभु का आनन है।
अहा! अवध-सा आज लग रहा चित्रकूट जी कानन है॥

पुष्परेणु से मण्डित आनन पर जिनके आभा अनुपम।
तप्त स्वर्ण-सा वर्ण देह का जिसमें है शोभा-संयम॥
विश्ववंदनी, शक्ति रूपिणी वही मैथिली सीता हैं।
जगदम्बा-सी सती शिरोमणि, सावित्री सुपुनीता हैं॥

स्वर्ण शैल संकाश या कि पीताभ जलज तन चन्दन सा।
सौभाग्य नमन करता जिनका, पौरुष करता अभिनन्दन सा॥
वे ही हैं श्री सौमित्र विश्व में जिनकी आज बडाई है।
धराधाम पर आज लखन-सा कहाँ दूसरा भाई है॥
अहा! सुवल्कल वसन पहनकर बैठे हैं रघुकुल-नन्दन।
नहीं यहाँ पर राज-पाट है, नहीं यहाँ घोड़े-स्यन्दन॥
आप खुशी से रहते वन में श्रमकर जीवन जीते हैं।
लखन और सीता नित पौधों में पानी दे, पीते हैं॥

पर्णकुटी के आस-पास जो लगी हुई है फुलवारी।
उसे लगाया करकमलों से स्वयं जनकजा सुकुमारी॥
राम और लक्ष्मण घट भर-भर पानी खुद ही लाते हैं।
कितनी शोभा, कितना गौरव, तभी रोज वह पाते हैं॥

कर्मशील, कर्तव्यनिष्ठ, इनके पास आलस आती।
वर्षा, आतप, शीत झेलने में समर्थ इनकी छाती॥
ऋध्दि-सिद्धि, नव निधि से इनको नहीं कभी अनुराग हुआ।
कैसे इन्हें मधुर यौवन में ऐसा विषय-विराग हुआ?

कभी परिश्रम करते इनको तनिक नहीं ब्रीड़ा होती।
मेहनत इनके लिए वास्तव में केवल क्रीड़ा होती॥
जिन्हें काम से घृणा-जुगुप्सा वे परजीवी भोगी हैं।
सृजन-धर्म के चिर प्रतिरोधी, जीवन्मृत हैं, रोगी हैं॥

श्रम करना अधिकार मनुज का, इसमें है कैसी लज्जा?
इसके द्वारा परिपोषित जन, इससे बढती है सज्जा॥
श्रम को तजकर कभी नहीं हम सुख से यों जी सकते। हैं
बस प्रमाद, विद्वेष, अनादर का विष ही पी सकते हैं॥

भला कौन है ऐसा जग में जो न श्रमिक हो उत्साही?
कौन कामना रहित बता दो, कौन कष्ट-पथ का राही?
कौन निरादर सहकर जग में जेवण जीना चाहता है?
कौन एषणा-रहित बीतरागी यौवन में बहता है?

सभी चाहते सुख से जीना, वस्तु खोजते मनचाही।
सभी चाहते कांचन-मणि हो, रहे ठाठ औबल शाही॥
किन्तु कर्म के बिना कभी हम कुछ भी नहीं पा सकते हैं।
पास लटकता मधुर भाग्य-फल कभी नहीं खा सकते हैं॥
यद्यपि ये सुकुमार सरल हैं फिर भी निरन्तर श्रम करते।
एक-दूसरे को विलोक कर, हँसकर, कहकर दुःख हरते॥
कितना इनमें विमल प्रेम है, कितना भरा तपोबल है।
वही जयी होता इस जग में जिसका सुदृढ़ मनोबल है॥

वन में सहते कष्ट अमित पर कभी नहीं 'सी' भी करते।
इन्हीं परुष पाषाण मार्ग पर, कंटक-कुश पर पग धरते॥
सहते कष्ट यहाँ पर कितना कहा नहीं जा सकता है।
इन्हें विलोके बिना एक क्षण रहा नहीं जा सकता है॥

हम तपस्वियों, ऋषि-मुनियों के ये सुजान हैं, जीवन हैं।
तप-धन-संचित, स्वार्थ शून्य हम जैसे जन के तन-मन हैं॥
आये हैं जबसे इस वन में पेड़ स्वयं फल देते हैं।
मेघ समय पर वर्षा करते, खेत उगल धन देते हैं॥

सर्वकला-निष्णात, कष्ट की इनपर चलती घात नहीं।
रहते नित संतुष्ट, रुष्ट होने की कोई बात नहीं॥
दीख रही जो कुटी कुञ्ज के बीच बनी सुखदायी है।
उसे सुमित्रलाल लखन ने अपने हाथ बनायी है॥

ये निर्धनों और दलितों को नित्य नयी शिक्षा देते।
कहते-" करो परिश्रम, कर्मठ कभी नहीं भिक्षा लेते॥
भाग्यवाद को भूल, उठो, कर्तव्य करो, निर्माण करो।
गला काटकर किन्तु किसी का कभी नहीं निज गह भरो।

आज विषमता कि समाज में सुलग रही जो चिन्गारी।
उसे समझ लो सर्वनाश की होती भीषण तैयारी॥
उठो एक हो महाशक्ति बन धराधाम पर नाम करो।
सुजन-विरोधी दुष्ट शक्तियों का अब काम तमाम करो॥"

ये प्रचण्ड मानववादी है, मानवता के विश्वासी।
इनकी सुधावृष्टि से शीतल होगी ये धरती प्यासी॥
माया कि छाया भयंकरी पास न आने पायेगी।
होगी शांति धरा पर, जनता जीयेगी, मुस्कायेगी॥
बल-वीरता, बुद्धि-कौशल, करुणा अथाह, वात्सल्य सरल॥
मंगलमय उल्लास, आत्मा का सात्विक ऐश्वर्य तरल;
जिसमें ये गुण मिलें वही नर नारायण कहलाता है।
संत जनों की रक्षा करता, दुष्टों को दहलाता है॥

जब से आये राम सज्जनों का जीवन निःशंक हुआ।
इनके कारण रात्रिचरों का भय-विह्वल आतंक हुआ॥
सदा प्रपीड़ित दलित जनों में नयी प्रेरणा आयी है।
नयी रीतियाँ, नयी नीतियाँ देती आज दिखाई हैं॥

इनकी सारी बात ठीक है, इनका है मौलिक चिन्तन।
हृदय और मस्तिष्क उभय का हुआ योग ज्यों मणि-कांचन॥
इनकी बातें लगती हमको जैसे अपनी बाते हैं।
ऐसा लगता जैसे इनसे जनम-जनम के नाते हैं॥

आँख मूँद कर कभी नहीं ये किसी चीज को अपनाते।
ऐसे पुरुष धरा पर अपनी लीक खींच कर ही जाते॥
धरती की समृद्धि हमेशा उनके पग पर झुकती है।
जिनकी प्रतिभा प्रश्न-चिन्ह बन परम्परा पर रूकती है॥

कितने हैं ये दयावन्त, जीवों के रक्षक, अति भोले।
अहा! हमारे जन्म-जन्म के बन्द द्वार इनने खोले।
पर-दुख देख द्रवित होते हैं, हिमवत् तुरत पिघलते हैं।
दुष्ट-दमन के लिए विष्णु-से आठो याम मचलते हैं॥

ये स्वतन्त्रता के परिपोषक, वैर दासता से इनकी।
ये विकास-समृद्धि देखना चाह रहे हैं जन-जन की॥
ये जनता के परम हितैषी, ये जनमत के पोषक हैं।
इनसे थर-थर काँप रहे हैं जो जनता के शोषक हैं॥

इनका कहना " नहीं किसी के पास विपुल धन संचित हो।
भोजन, वस्त्र, निवास, सुशिक्षा से न कोई जन वंचित हो॥
कहीं नहीं अन्याय प्रबल हो दुराचार बढने पाये।
कहीं नहीं कोई जन-धन से कंचन-गढ़ गढ़ने पाये॥"
जहाँ लोकमत की अवहेला, धर्म-हीनता शासन में।
जहाँ लोक-अधिकार-हनन है, केवल मिथ्या भाषण में॥
उन्हें राम के अग्नि-बाण का, अब शरव्य बनना होगा।
राम-राज के वर वितान को धरती पर तनना होगा॥

राम नहीं बस व्यक्ति, राष्ट्र की वे ज्वलन्त परिभाषा हैं।
राम नहीं बीएस शक्ति, शील के रक्षण की अभिलाषा है॥
रान नहीं हैं राजनीति, जन-हित की महती कांक्षा हैं।
राम नहीं कल्पना, मनुज की स्वर्ग-विजयनी वांछा है॥

राम सत्य संकल्प धरा पर नई व्यवस्था लाने के।
राम स्वस्थ सिद्धान्त धर्म का ध्वज निर्भय फहराने। के
राम श्रेष्ठ आदर्श मनुज के गौरव के. सुविचारों के॥
राम दिव्य दृष्टांत दुष्टता के निर्मम संहारों के॥

राम एक प्रतिमान देश की संस्कृति के आचारों के।
राम एक दिनमान अडिग मर्यादा के, व्यवहारों के॥
राम सहज साकार धर्म हैं, पौरुष की अंगड़ाई हैं।
रामचन्द्र इस धराधाम पर हँसती हुई भलाई हैं॥

आर्य-सभ्यता के प्रतीक श्री राम गुणों की सीमा हैं।
इनकी गति से काल-चक्र भी कम गतिमय है, धीमा है॥
हम सब अब तक अनासक्त थे, अब आसक्त कहायेंगे।
रामभक्त हम, राम-काज हित जीयेंगे, मर जायेंगे॥

फूले फले धरा पर चहुँदिशि राम-राज जग-हितकारी।
सभी सुजन हो जाएँ स्वर्ग-अपवर्ग प्राप्ति के अधिकारी॥
मिटटी की सुगन्धि भर जाये पारिजात के फूलों में।
भे विश्व कल्याण-कामना जीवन के उपकूलों में॥

बढ़ें जगत में शूर-वीर, अप्रतिम तेजमय, बलशाली।
सदा शरासन रहे हाथ में शोभायुक्त प्रेम-पाली॥
प्रखर वीरता के ऊपर करुणा-ममता का शासन हो।
और विश्व के ह्रदय-ह्रदय में पशुता का निष्कासन हो॥
लिए हाथ में कलश कर्म का बढ़ें एक स्वर से गाते।
त्याग एनी को विनय सहित, सब बढ़े सत्य को अपनाते॥
और अहिंसा का जन-प्यारा उज्ज्वल दीप चमकता हो।
मानवता का हर-भरा यह अनुपम बाग़ गमकता हो॥

मिटे वैर सब रहें प्रेम से, ह्रदय-ह्रदय ना दूर रहें।
सभी झुकें हों फलित वृक्ष-से और न मद में चूर रहें॥
जय हो अखिल श्रृष्टि के नायक, भाग्य-विधायक, जगत्राता।
जयति अत्युतम जनकदुलारी, तेज-पुंज शुभ युग-भ्राता॥