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बाहर-भीतर / अजित कुमार

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बाहर कितना शोर मचा है,

भीतर आती एक न आहट,

इसी मुक्ति के लिए

तुम्हारे मन में थी इतनी अकुलाहट ।


अरे बन्धु । यह तो कारा है,

दृढ प्राचीरें, द्वार अचल है ,

और वहाँ जनघोष, क्रान्तियाँ --

और यहाँ…सबकुछ निश्चल है ।