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पहाड़ी सड़क / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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टेढ़ी-मेढ़ी इठलाती
नागिन-जैसी बल खाती
है यह सड़क पहाड़ों की,
बच्चों जैसी शरमाती ।

बाएँ बहता है झरना
दाएँ है गहरी खाई
ज्यों-ज्यों चढ़ते हैं ऊपर
उतना ही यह चकराई ।
पर्वत -घाती पार करे
मोड़-मोड़ पर भरमाती।
पीछे छूट गर टीले
घाट , नदी के पथरीले
कुदक रहे खरगोशों -से
भूरे बादल शर्मीले ।
छूकर इनको पलभर में
नटखट आगे बढ़ जाती ।
दिनभर रहती चहल-पहल
यह आराम न कर पाती
साँझ हुई जब पर्वत पर
तब यह गुमसुम हो जाती ।
रात हुई तो सोती है
भोर हुआ तब जग जाती ।