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नींद में डूबे योद्धा सुरक्षित हैं / अजित कुमार

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कौंधती उधर किरनें

लड़ने को आती हैं ।

हम तो अप्रस्तुत हैं ।

डूबे हैं नींद में,

खोए हैं स्वप्न में,

चेतन से परे ये हम

लीन हैं अचेतन में ।

हम तो अप्रस्तुत हैं,
इसलिए सुरक्षित हैं ।


आख़िर हमसे क्या लेगा उजाला ?

आख़िर क्या कर लेंगी किरनें हमारा ?

उनके पैने-तीखे तीर सभी व्यर्थ हैं ।

होएँ हम किरणों से भले ही अपरिचित

पर ज्ञात है हमें तो—

वे गन्दी हैं, नीच और घृणित और कुत्सित है,
रखती अपेक्षा हैं नींद तोड़ने की वे ।
दंभ-मात्र ही है यह ।


जाओ अनुचरो, अरे निशि के अनुचरो ।

कहो—

नहीं है अप्रस्तुत हम ।

सज्जित हैं, रक्षित हैं, पालित हैं

--सुप्ति के कवच में ।

यह राज्य हमारा है ।

किरणों के चापों पर ध्यान नहीं देंगे हम

--स्वप्नों के अभयद कुंडलों से अलंकृत हैं । …


कितना ही कहो हमें—‘सूर्यपुत्र । सूर्यपुत्र ।

उसका पितृत्व यहाँ कौन स्वीकारता ।

तुम्हीं हो असत्य-पक्ष, तुम्हीं दस्यु, अन्यायी ।

धर्मयुद्ध को हम धर्मयुद्ध नहीं मानते ।


हम तो हैं वीर कर्ण ।

वीर कर्ण । --मूर्ख नहीं ।

दान नहीं देंगे हम ।

कवच और कुंडल हम कभी नहीं त्यागेंगे—

क्या मारे जाएँगे ??


हम हैं कूटज्ञ कर्ण, धूर्त कर्ण, चतुर कर्ण :

दानी नहीं ।

और यों सुरक्षित हैं उसके उजाले से

संभव है, जिससे हम कभी कहीं जन्मे हों ।